हे दोस्तों! कैसे हैं आप सब?
😊

क्या आपने कभी उत्तराखंड के बारे में सुना है?
जिसे देवभूमि कहा जाता है — क्योंकि माना जाता है कि यहां देवताओं का वास है।
यहां की वादियों में सिर्फ प्राकृतिक सुंदरता ही नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और लोकसंस्कृति भी हर सांस में बसी है।

उत्तराखंड अपने पर्वों और मेलों की विविधता के लिए प्रसिद्ध है।
यहां हर त्यौहार के पीछे कोई न कोई पौराणिक कथा, सांस्कृतिक परंपरा और आध्यात्मिक भावना जुड़ी होती है।

इस लेख में हम जानेंगे उत्तराखंड के उन प्रमुख मेलों और त्यौहारों के बारे में,
जो न सिर्फ देखने में भव्य हैं, बल्कि आस्था और संस्कृति की जीवंत मिसाल भी हैं।

तो आइए, इस सांस्कृतिक यात्रा की शुरुआत करते हैं – देवभूमि उत्तराखंड की परंपरा की झलक के साथ!


अनुक्रमणिका (Table of Contents)


कुंभ मेला (Kumbh Mela) – एक आस्था, एक उत्सव, एक महासंगम!

"क्या आपने कभी वो मंज़र देखा है जब लाखों लोग एक ही विश्वास के साथ एक ही नदी में डुबकी लगाते हैं?"
यही है कुंभ मेला – एक ऐसा आयोजन जो धर्म, श्रद्धा और संस्कृति का सबसे बड़ा संगम है।

उत्तराखंड के हरिद्वार को ये सौभाग्य प्राप्त है कि यहाँ हर 12 वर्षों में महा कुंभ मेला, हर 6 वर्ष में अर्ध कुंभ मेला, और हर 3 साल में पूर्ण कुंभ या सिंहस्थ मेला आयोजित होता है।
गंगा नदी की गोद में बसा यह शहर, कुंभ के दौरान विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक सभा बन जाता है।

🪔 पौराणिक मान्यता के अनुसार, देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत कलश के लिए जब महासंग्राम हुआ, तो अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिरीं – हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक
हरिद्वार उन्हीं पावन स्थलों में से एक है – इसलिए यहां का कुंभ मेला एक दिव्य पर्व माना जाता है।

🌊 गंगा स्नान – अमरत्व की ओर एक कदम!
मान्यता है कि कुंभ के दौरान गंगा स्नान करने से जीवन के सारे पाप मिट जाते हैं और आत्मा को शुद्धि मिलती है।
इस दिन नागा साधु – जो पर्वतों में कठोर साधना करते हैं – पहला स्नान करते हैं, जिसे शाही स्नान कहा जाता है।

📸 कुंभ मेला आज सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं रहा – यह एक जीवंत अनुभव है!
यहां आएंगे:

  • श्रद्धालु जो मोक्ष की कामना करते हैं,
  • लेखक और पत्रकार जो इस विराट उत्सव को शब्दों में समेटना चाहते हैं,
  • और पर्यटक, जो भारतीय संस्कृति की गहराई को देखना चाहते हैं।

📅 2010 के महाकुंभ में तो एक ही दिन – 14 अप्रैल को करीब 1 करोड़ लोग गंगा में डुबकी लगाने पहुंचे थे —
और ये बना था दुनिया की सबसे बड़ी मानव सभा का इतिहास।


✅ एक नजर में कुंभ मेला:

🔷 विशेषता 📌 विवरण
📍 स्थान हरिद्वार, उत्तराखंड
📆 आवृत्ति हर 12 साल (महा कुंभ), 6 साल (अर्ध कुंभ)
🕉️ प्रमुख गतिविधियाँ गंगा स्नान, शाही स्नान, संतों के प्रवचन
🙏 महत्व मोक्ष, आस्था, पौराणिक मान्यता
⭐ प्रसिद्ध आयोजन 2010 महाकुंभ – 1 दिन में 1 करोड़ से अधिक लोग



हरेला (Harela) - प्रकृति, परंपरा और आस्था का जश्न!

"Hey Doston! Kya aapne kabhi suna hai ek aise tyohar ke baare mein jisme zameen par bij boney se lekar har ek paudha ek vardaan ban jata hai?"
अगर नहीं, तो आइए मिलते हैं उत्तराखंड के 'हरेला' से – एक ऐसा लोक पर्व जो सिर्फ मौसम नहीं बदलता, बल्कि लोगों के दिलों को भी हरियाली से भर देता है।

हरेला, खासतौर पर उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बड़े ही प्रेम और परंपरा के साथ मनाया जाता है। यह कोई एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि तीन बार मनाया जाने वाला त्योहार है —
📅 चैत्र (मार्च-अप्रैल), आश्विन (सितंबर-अक्टूबर) और श्रावण (जुलाई के अंत में), हर बार नए मौसम के आगमन का स्वागत करता है।

🌱 परंपरा जो धरती से जुड़ती है…

त्योहार की शुरुआत होती है नवरात्रि के पहले दिन — जब घर की महिलाएं मिट्टी के पात्रों में सात प्रकार के अनाज (जैसे – गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, मसूर आदि) बोती हैं।
इनसे उगने वाले छोटे-छोटे पीले अंकुरों को ही “हरेला” कहा जाता है।

👉 दसवें दिन, इन अंकुरों को काटकर पूजा की जाती है और परिवार के हर सदस्य के सिर या कान के पीछे लगाया जाता है — इसे "हरियाली का आशीर्वाद" माना जाता है।


🕉️ आध्यात्मिक और कृषि महत्व

श्रावण का हरेला खास महत्व रखता है क्योंकि यह बरसात के मौसम का प्रतीक है और भगवान शिव व पार्वती के पावन विवाह की स्मृति से भी जुड़ा हुआ है।
लोग इस दिन मिट्टी से गौरी, महेश्वर और गणेश की छोटी मूर्तियाँ बनाते हैं और पूजा करते हैं।

💡 Interesting Fact: इस दिन बैलों को भी विशेष आराम दिया जाता है — ताकि वे आने वाली खेती के लिए तैयार हो सकें।


👧 भितौली: बच्चियों की मुस्कान के लिए

हरेला के बाद आता है भितौली, जिसमें परिवार की बेटियों और बहनों को उपहार, पैसे या मिठाइयाँ भेजी जाती हैं।
यह परंपरा बेटियों के सम्मान और स्नेह का प्रतीक है, जो हरेला को एक परिवारिक त्योहार बना देती है।

🌾 हरेला क्यों है अनोखा?

🌸 विशेषता 📖 विवरण
📍 स्थान कुमाऊं क्षेत्र, उत्तराखंड
📆 पर्व की आवृत्ति वर्ष में 3 बार (चैत्र, आश्विन, श्रावण)
🌱 प्रतीक हरियाली, कृषि समृद्धि, ऋतु परिवर्तन
🧪 उपयोग बीजों की गुणवत्ता परीक्षण और खेती की तैयारी
🙏 धार्मिक महत्त्व शिव-पार्वती विवाह, मिट्टी की देवी-देवताओं की पूजा
🎁 भितौली परंपरा बेटियों को उपहार देना

तो अगली बार जब कहीं “हरेला” का नाम सुनें, तो सिर्फ त्योहार नहीं — बल्कि उसमें छिपी हरियाली, परंपरा, प्रेम और प्रकृति का जश्न महसूस करें!
क्योंकि हरेला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं, भारत की धरती से जुड़े हर दिल का त्योहार है 🌿💚


मकर संक्रांति (Makar Sankranti)– उत्तराखंड में घुघुटिया की मीठी परंपरा 

"काले कौआ, काले घुघुत खाले!"
क्या आपने कभी ऐसा गीत सुना है? अगर नहीं, तो उत्तराखंड की मकर संक्रांति यानी घुघुटिया की अनोखी परंपरा को जानना आपके लिए बेहद दिलचस्प होगा।

उत्तराखंड में मकर संक्रांति सिर्फ एक खगोलीय घटना नहीं, बल्कि प्रकृति, संस्कृति और आस्था का सुंदर संगम है। जैसे ही सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और उत्तरायण शुरू होता है, यहां की वादियाँ इस खास पर्व के उल्लास में डूब जाती हैं।

🌾 क्या है घुघुटिया?

कुमाऊं क्षेत्र में मकर संक्रांति को 'घुघुटिया' कहा जाता है। इस दिन बच्चे गेहूं के आटे से बनी मीठी पकौड़ियों की माला पहनते हैं – जिन्हें घुघुते कहते हैं। ये पकवान न केवल स्वादिष्ट होते हैं, बल्कि उन्हें डमरू, तलवार, चाकू, अनार जैसे रोचक आकारों में बनाया जाता है।
बच्चे यह माला पहनकर सुबह-सुबह आँगन में जाते हैं, और कौवों को बुलाते हैं –
"काले कौआ घुघुत खा, ले जा कौआ पुराण खा!"
यह परंपरा पक्षियों के प्रति प्रेम और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना को दर्शाती है।

🕉️ धार्मिक और खगोलीय महत्व

मकर संक्रांति वह दिन होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करता है – यानी दिन बड़े होने लगते हैं। शास्त्रों में यह दिन पुण्य, मोक्ष और उन्नति का प्रतीक माना गया है। उत्तराखंड में इस दिन खासकर सरयू, गोमती और गौला जैसी नदियों में पवित्र स्नान का बहुत महत्व होता है।

🎪 मेलों और उत्सव का रंग

इस दिन उत्तरायणी मेलों का आयोजन किया जाता है, विशेष रूप से बागेश्वर और रानीबाग में। वहां न सिर्फ धार्मिक क्रियाएं होती हैं, बल्कि स्थानीय हस्तशिल्प, खान-पान और लोक संगीत का अद्भुत अनुभव भी मिलता है।

🐦 क्यों है यह पर्व अनोखा?

यह सिर्फ त्योहार नहीं, एक पारंपरिक संदेश है –
पक्षियों का स्वागत करो, अन्न बांटो, प्रेम फैलाओ।
यह त्योहार बच्चों को प्रकृति से जोड़ता है, समाज में दान और सेवा की भावना जगाता है, और सांस्कृतिक पहचान को मजबूती देता है।

🌞 मकर संक्रांति – उत्तराखंड की खास घुघुटिया परंपरा

🌟 विशेषता 📖 विवरण
📍 स्थान उत्तराखंड – खासकर कुमाऊं क्षेत्र, बागेश्वर, रानीबाग
🌞 ज्योतिषीय महत्व सूर्य का मकर राशि में प्रवेश, उत्तरायण की शुरुआत
🛁 धार्मिक अनुष्ठान सरयू, गोमती, गौला जैसी नदियों में पवित्र स्नान
🍲 प्रमुख परंपरा खिचड़ी का दान, पक्षियों के लिए घुघुटिया माला बनाना
🎶 लोक भावना बच्चे कौवों को बुलाते हैं: "काले कौआ, घुघुत खा, ले जा कौआ पुराण खा"
🕊️ प्रकृति जुड़ाव प्रवासी पक्षियों की वापसी का स्वागत, पक्षियों के लिए अन्न अर्पण



🌼 बसंत पंचमी – पीले रंग में डूबा एक उल्लासपूर्ण उत्सव

"फूलों की मुस्कान, पंछियों की तान और ज्ञान की देवी का आशीर्वाद – यही है बसंत पंचमी की पहचान!"

Hey doston!
क्या आपने कभी महसूस किया है कि ठंडी सर्दियाँ जब अलविदा कहती हैं, तो हवा में एक नई मिठास घुल जाती है? पेड़-पौधे जागने लगते हैं, खेतों में सरसों की पीली चादर बिछ जाती है, और मन में कुछ नया करने की चाहत जन्म लेती है — बस, वही समय होता है बसंत पंचमी का।

🎓 सरस्वती वंदना – ज्ञान और संगीत की देवी को समर्पित

उत्तराखंड में यह त्योहार विशेष रूप से विद्या, बुद्धि और कला की देवी माँ सरस्वती को समर्पित होता है। माना जाता है कि इस दिन माँ सरस्वती धरती पर अवतरित हुई थीं।
स्कूलों, मंदिरों और घरों में भव्य पूजा होती है। बच्चे अपनी किताबें, कलम और वाद्ययंत्र माँ के चरणों में अर्पित करते हैं ताकि उन्हें आशीर्वाद मिल सके।

🔸 पीला रंग, जो मां सरस्वती का प्रिय है, इस दिन हर ओर दिखाई देता है –
पीले कपड़े, पीले फूल, पीला तिलक और यहां तक कि केसरिया हलवा भी।


🎶 संस्कृति की खुशबू – नृत्य, संगीत और मेलों का संगम

बसंत पंचमी उत्तराखंड में सिर्फ पूजा-पाठ का पर्व नहीं, बल्कि यह लोक संस्कृति का उत्सव भी है।
ढोल-दमाऊं की गूंज, झुमेलिया और चौनफुला जैसे पारंपरिक नृत्य, युवाओं का उल्लास – सब कुछ इस दिन को खास बना देता है।

उत्तराखंड के ऋषिकेश स्थित भारत मंदिर में इस दिन एक भव्य मेला लगता है।
यहाँ भगवान भारत की मूर्ति को एक शोभायात्रा में पूरे शहर में घुमाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जगद्गुरु शंकराचार्य ने इस मूर्ति को इसी दिन मंदिर में स्थापित किया था।

📸 बसंत पंचमी क्यों है खास? – एक नजर में

🌼 विशेषता 📖 विवरण
📍 स्थान उत्तराखंड (विशेष रूप से ऋषिकेश, स्कूल-कॉलेज, मंदिरों में)
🎨 प्रतीक रंग पीला – समृद्धि, ऊर्जा, और ज्ञान का रंग
🕉️ देवी पूजन माँ सरस्वती – विद्या, संगीत और बुद्धि की देवी
🍛 पारंपरिक पकवान केसर हलवा, मीठे चावल, पीले व्यंजन
💃 लोक उत्सव झुमेलिया, चौनफुला नृत्य, ढोल-नगाड़े, शोभायात्रा
📜 ऐतिहासिक महत्व ऋषिकेश के भारत मंदिर में भगवान भारत की मूर्ति की स्थापना


💡 जानते हैं?

बसंत पंचमी को उत्तराखंड में “श्री पंचमी” भी कहा जाता है। यह दिन विद्यार्थियों के लिए बेहद शुभ माना जाता है – इसलिए कई जगहों पर बच्चे इसी दिन पहली बार पढ़ना-लिखना (विद्यारंभ) शुरू करते हैं।


तो दोस्तों, जब भी आप उत्तराखंड के वसंत को महसूस करना चाहें – बसंत पंचमी के दिन वहां की वादियों में चलिए…
जहां हर फूल मुस्कुरा रहा होता है, हर दिल गुनगुना रहा होता है — और देवी सरस्वती का आशीर्वाद हर कोने में बिखरा होता है। 🌼✨

🌸 फूल देई – उत्तराखंड का रंग-बिरंगा फूलों का त्योहार

Hey Doston! क्या आपने कभी ऐसा त्योहार देखा है जिसमें बच्चे दरवाज़े पर फूल और मिठास छोड़ जाते हैं? उत्तराखंड का "फूल देई" एक ऐसा ही त्योहार है जो नई ऋतु, नई फसल और नई उमंग के साथ आता है।

यह पर्व चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) में आता है और इसे फसल उत्सव के रूप में मनाया जाता है। गढ़वाल में इसे फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई उत्सव कहते हैं।

इस दिन घरों के दरवाज़ों पर फूल, चावल और पत्ते बिछाए जाते हैं, जिससे समृद्धि और शुभता का आशीर्वाद घर में प्रवेश करे। साथ ही 'फुलारी' (बच्चे जो फूल चढ़ाते हैं) लोकगीत गाते हैं:

फूल देई, छम्मा देई, दैनी द्वार, भर भकार, यो देल यो देई, जै जै कार!

इस मौके पर घरों में "देई" नाम का हलवा भी बनाया जाता है, जो गुड़ और आटे से तैयार होता है।

🌼 एक नजर में – फूल देई

🌺 विशेषता 📖 विवरण
📍 स्थान गढ़वाल और कुमाऊं, उत्तराखंड
📆 समय चैत्र महीने की संक्रांति (मार्च-अप्रैल)
🌸 उद्देश्य वसंत का स्वागत, समृद्धि की कामना, फसल उत्सव
👧 बच्चों की भूमिका 'फुलारी' बनकर घर-घर फूल अर्पित करते हैं
🍚 प्रसाद देई – गुड़ और आटे से बना खास हलवा
🎶 लोकगीत "फूल देई छम्मा देई..." गीत बच्चों द्वारा गाया जाता है

🌿 कंडाली – 12 साल में एक बार खिलने वाला उत्सव

नमस्ते दोस्तों! क्या आपने कभी किसी ऐसे फूल का नाम सुना है जो 12 साल में सिर्फ एक बार खिलता हो? उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की चौंदास घाटी में ऐसा ही एक फूल खिलता है – कंडाली। और जब ये फूल खिलता है, तब पूरे क्षेत्र में उत्सव छा जाता है!

यह पर्व रूंग जनजाति के लोगों द्वारा बड़े उत्साह से मनाया जाता है। लेकिन ये सिर्फ एक फूल का त्योहार नहीं, बल्कि इतिहास और वीरता1841 में सिख सेनापति जोरावर सिंह

महिलाओं ने बहादुरी से मुकाबलाविजय उत्सव

इस पर्व की खास बात यह है कि इसमें पूजा, दावत, पारंपरिक झंडा फहराना, नाटकझाड़ियों पर प्रतीकात्मक हमला

पूरी रात

🌼 एक नजर में – कंडाली उत्सव

🌿 विशेषता 📖 विवरण
📍 स्थान चौंदास घाटी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड
📅 आवृत्ति हर 12 वर्ष में एक बार
🌸 फूल का नाम कंडाली – सिर्फ 12 साल में एक बार खिलता है
🛡️ ऐतिहासिक संदर्भ जोरावर सिंह की सेना की हार की याद में विजय पर्व
🙏 पूजा और रीति भगवान शिव की मूर्ति की पूजा, प्रतीकात्मक युद्ध अभिनय
🍛 भोज और जश्न स्थानीय अनाज से दावत, झंडारोहण, लोकनाट्य, शराब


🌳 वट सावित्री – प्यार, आस्था और बरगद का त्योहार

उत्तराखंड की संस्कृति में वट सावित्री एक खास और भावनात्मक त्योहार है। इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र, स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए पूरे दिन व्रत रखती हैं और पूजा करती हैं।

इस पूजा में एक खास चीज होती है — बरगद का पेड़, जिसे हिंदी में वट वृक्ष कहा जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, बरगद का पेड़ अजर-अमर का प्रतीक है। महिलाएं इस पेड़ की पूजा करती हैं और इसकी परिक्रमा करती हैं।

इस त्योहार के पीछे एक बहुत ही प्रेरणादायक कहानी है — सावित्री और सत्यवान की। महाभारत में बताया गया है कि सावित्री के पति सत्यवान की मृत्यु तय मानी गई थी। लेकिन सावित्री ने पूरे विश्वास, प्रेम और कठिन तपस्या के साथ यमराज (मृत्यु के देवता) से अपने पति की जान वापस पा ली। कहा जाता है कि यह पूरा चमत्कार बरगद के पेड़ के नीचे हुआ था। तभी से यह त्योहार "वट सावित्री" कहलाने लगा।

👉 यह पर्व ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है, जो आमतौर पर जून के महीने में आता है।

इस दिन महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा पहनती हैं, कथा सुनती हैं, बरगद के पेड़ के चारों ओर धागा लपेटकर परिक्रमा करती हैं और अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं।

✨ ये सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि विश्वास, प्रेम और त्याग की मिसाल है।

 

🕉️ पूर्णागिरी मेला – आस्था, श्रद्धा और शक्ति का संगम 

उत्तराखंड की धरती पर अगर किसी मेले को भक्ति और आस्था का महासागर कहा जाए, तो वो है — पूर्णागिरी मेला

यह मेला हर साल चैत्र नवरात्रि (मार्च-अप्रैल) के समय आयोजित होता है और करीब दो महीने तक चलता है। इस दौरान लाखों श्रद्धालु देशभर से यहां आते हैं देवी के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद लेने।

🔱 पूर्णागिरी मंदिर समुद्र तल से करीब 1676 मीटर ऊँचाई पर अन्नपूर्णा पर्वत श्रृंखला में स्थित है। कहा जाता है कि यहां सती माता की नाभि गिरी थी, जब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उनका शरीर विभाजित किया था। इसी कारण यह स्थान 108 सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है।

🛕 स्थान की जानकारी:

  • मंदिर टनकपुर (चंपावत जिला) से लगभग 20 किमी और तुन्या से 17 किमी की कठिन परंतु रोमांचक चढ़ाई के बाद मिलता है।

  • मंदिर के रास्ते में भक्तजन काली नदी के किनारे-किनारे चलते हैं, और यह सफर भक्ति, भजन और श्रद्धा से भरा होता है।

🌄 यहां से पहाड़ों का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है — मानो प्रकृति भी माँ के दरबार की शोभा बढ़ा रही हो।

💬 ये मेला सिर्फ एक तीर्थ यात्रा नहीं, बल्कि एक अनुभव है – जहां शरीर थक सकता है लेकिन आत्मा तृप्त हो जाती है।


स्यालदे बिखौटी मेला – परंपरा, पत्थर और पर्व का मिलन

उत्तराखंड की पर्वभूमि न सिर्फ़ प्रकृति की गोद है, बल्कि यह संस्कृति, परंपरा और श्रद्धा का भी अनमोल खजाना है। इन्हीं रंगों में रचा-बसा है एक बेहद अनोखा और लोकसंस्कृति से जुड़ा उत्सव – स्यालदे बिखौटी मेला

यह मेला हर साल वैशाख मास (अप्रैल-मई) में अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट क्षेत्र में आयोजित किया जाता है। दो चरणों में होने वाला यह मेला धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

  • 🔱 पहला चरण – विमंदेश्वर मंदिर में आरंभ

इस मेले की शुरुआत होती है विमंदेश्वर महादेव मंदिर से, जो कि द्वाराहाट से लगभग 8 किलोमीटर दूर एक सुरम्य पहाड़ी स्थान पर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और श्रद्धालु यहां गंगा स्नान जैसी पवित्र भावना से स्नान कर पूजा-अर्चना करते हैं।

यहां आसपास के गाँवों से लोग अपने पारंपरिक झंडों के साथ आते हैं – ढोल, दमाऊं, रणसिंघा जैसे लोक वाद्ययंत्रों की धुन पर पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य करते हैं और अपने-अपने देवताओं की उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

  • 🪨 ओडा भेटना – आस्था और बलिदान की कहानी

इस मेले से जुड़ी एक अनोखी और रोमांचक परंपरा है – 'ओडा भेटना', जिसका अर्थ है पत्थर पर प्रतीकात्मक वार करना

पौराणिक कथा के अनुसार – बहुत पहले, द्वाराहाट क्षेत्र में दो गुटों में विवाद हुआ था। शीतला देवी मंदिर में पूजा के दौरान हुए इस विवाद में एक गुट के मुखिया का सिर काट दिया गया। उसकी स्मृति में जहां उसका सिर गिरा, वहां एक ओडा (विशेष पत्थर) रखा गया। तब से यह परंपरा है कि मेले में जाने से पहले, लोग उस पत्थर पर प्रतीकात्मक रूप से एक वार करते हैं, जैसे कि इतिहास को याद करते हुए।

यह परंपरा आज भी बहुत उत्साह और श्रद्धा से निभाई जाती है।

  • 🏞️ दूसरा चरण – द्वाराहाट बाजार की रौनक

मेले का दूसरा चरण होता है द्वाराहाट बाजार में, जहां ग्रामीण और शहरी दोनों ही समुदायों की सहभागिता देखने को मिलती है। यहां लोक नाट्य, पारंपरिक नृत्य, हस्तशिल्प की दुकानें, खान-पान के स्टॉल, बच्चों के झूले और मेलार्थियों की भीड़ देखने को मिलती है।

यह मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिलन स्थल बन जाता है – जहां लोग पुराने संबंधों को दोबारा जोड़ते हैं, लोककला को जीवंत रखते हैं और एकता का जश्न मनाते हैं।

  • 🌞 विशुवत संक्रांति और फूल देई से जुड़ाव

बिखौटी मेला, विशुवत संक्रांति के समय मनाया जाता है – जब दिन और रात की अवधि बराबर होती है। इस दिन को अत्यंत शुभ माना जाता है और लोग इसे पवित्र स्नान, दान और आध्यात्मिक आरंभ के लिए चुनते हैं।

फूल देई, जो कि कुमाऊं क्षेत्र का प्रसिद्ध फूलों का पर्व है, उस उत्सव के बाद इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं।

📜 सांस्कृतिक महत्व

  • यह मेला उत्तरायणी और कुंभ मेले में न जा पाने वाले श्रद्धालुओं के लिए एक विकल्प की तरह माना जाता है।
  • स्थानीय नवयुवक, बाल कलाकार, महिलाएं, सभी इसमें भाग लेते हैं और अपनी लोकसंस्कृति को जीवित रखते हैं।
  • ओड़ा भेटना जैसे अनुष्ठान, शक्ति और संघर्ष के प्रतीक हैं, जो नई पीढ़ी को भी अपनी विरासत से जोड़ते हैं।

🙏 निष्कर्ष

स्यालदे बिखौटी मेला, उत्तराखंड की गौरवशाली परंपराओं, लोक आस्था और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। यह मेला सिखाता है कि परंपरा में सिर्फ़ पूजा नहीं होती, उसमें इतिहास, बलिदान, और सामाजिक बंधन भी होते हैं।

तो जब भी उत्तराखंड आएं, एक बार स्यालदे बिखौटी मेले की इस अद्भुत यात्रा का अनुभव ज़रूर लें।


🌊 गंगा दशहरा – माँ गंगा का पृथ्वी पर आगमन


उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता है, उसकी आत्मा को गंगा की पावन धाराओं ने ही जीवन दिया है। यहां हर साल मई-जून में मनाया जाने वाला गंगा दशहरा न केवल एक पर्व है, बल्कि आस्था, शुद्धि और पुनर्जन्म की अनुभूति है। यह पर्व गंगा माता के धरती पर अवतरण की स्मृति में दस दिवसीय उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

📖 पौराणिक कथा – स्वर्ग से धरती तक गंगा का सफर

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए कठोर तपस्या की थी। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर गंगा माता ने स्वर्ग से धरती पर उतरने का निर्णय लिया। परंतु गंगा की वेगवती धारा पृथ्वी को नष्ट कर सकती थी, इसलिए भगवान शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को रोककर धीरे-धीरे धरती पर प्रवाहित किया।

यह दिव्य घटना दशमी तिथि को घटित हुई थी — इसलिए इस दिन को गंगा दशहरा कहा जाता है। यह पर्व अमावस्या से शुरू होकर दसवें दिन तक चलता है।


🌅 हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा दशहरा की भव्यता

उत्तराखंड के तीर्थस्थलों – हरिद्वार, ऋषिकेश, गंगोत्री, और देवप्रयाग में यह पर्व एक आध्यात्मिक महोत्सव में बदल जाता है।

हर की पौड़ी पर होने वाली संध्या गंगा आरती इस दौरान और भी भव्य हो जाती है।

स्नान और ध्यान, इस दिन का प्रमुख भाग है। क           हा जाता है कि गंगा दशहरा पर स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते हैं – शारीरिक, मानसिक, वाचिक और आत्मिक दोष

दीपदान की परंपरा के तहत सैकड़ों मिट्टी के दीपक गंगा की लहरों पर प्रवाहित किए जाते हैं – जो अंधकार से उजाले की ओर यात्रा का प्रतीक है।

भजन, कीर्तन, मंत्रोच्चारण और महाप्रसाद के आयोजन से वातावरण पवित्रता और भक्ति में रंग जाता है।

🕉️ कांवड़ यात्रा - Kanwar Yatra

हर साल आते ही जुलाई और बारिश की बूँदों के साथ एक और चीज़ ज़ोरों पर शुरू हो जाती है — कांवड़ यात्रा!
अब आप सोच रहे होंगे — "ये क्या है?"
तो चलिए सुनिए एकदम मसालेदार भक्तिमय कहानी!

जैसे ही श्रावण मास शुरू होता है, लाखों भोले के भक्त अपने घर छोड़कर निकल पड़ते हैं…
Mission: गंगाजल लाओ और शिवजी को चढ़ाओ! 🎯
Location: हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख — full-on Himalayan adventure! 🏔️ 

उत्तराखंड में हर साल श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में श्रद्धा, आस्था और भक्ति का अनुपम संगम देखने को मिलता है — जिसे हम कांवड़ यात्रा के रूप में जानते हैं। यह यात्रा भगवान शिव के प्रति अनन्य भक्ति को समर्पित है, जिसमें लाखों कांवड़िए (शिव भक्त) अपने कंधों पर कांवर लेकर भारत के विभिन्न राज्यों से उत्तराखंड के पवित्र स्थानों — हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख तक लंबी यात्रा तय करते हैं।

इन भक्तों का उद्देश्य होता है पवित्र गंगा जल को इकट्ठा कर अपने गृहनगर लौटना और शिवलिंग का जलाभिषेक करना। यह जल वे अपने निकटस्थ शिव मंदिरों में चढ़ाते हैं, जैसे मेरठ के पुरा महादेव, औघड़नाथ मंदिर, या झारखंड के बाबा बैद्यनाथ धाम

यात्रा के दौरान भक्त पूरे जोश के साथ “बोल बम” के जयघोष करते हैं, नंगे पांव चलते हैं, उपवास रखते हैं और श्रावण के प्रत्येक सोमवार को विशेष पूजा करते हैं। इस पवित्र यात्रा की सबसे बड़ी विशेषता है इसका सामूहिक उत्सव स्वरूप, जहाँ हरिद्वार और गंगोत्री में विशाल शिविर, भंडारे और भजन-कीर्तन आयोजित किए जाते हैं।

गौरतलब है कि हरिद्वार में गंगा के घाटों पर जुटने वाली यह भीड़ भारत की सबसे बड़ी मानव सभाओं में से एक मानी जाती है। यह सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंत तस्वीर है, जिसमें भक्ति, त्याग और अनुशासन की झलक मिलती है।

इन भक्तों को कहते हैं "कांवड़िये" – ना ये किसी ट्रेन से जाते हैं, ना फ्लाइट से।
इनका स्टाइल ही अलग है! 😎
नंगे पाँव, कंधों पर रंग-बिरंगी कांवड़, और मुँह में “बोल बम बोल बम” का non-stop जप! 🎶
(Background में DJ वाले बाबा के भजन चल ही रहे होते हैं!)

 

📌 रोचक तथ्य:

  • कांवर यात्रा की परंपरा प्राचीन काल से जुड़ी मानी जाती है।
  • भक्त यात्रा के दौरान पूरी तरह नशा-मुक्त, शुद्ध और संयमित जीवन शैली अपनाते हैं।
  • ‘डाक कांवर’ जैसी व्यवस्था में जल को दौड़कर एक विशेष समय पर पहुंचाया जाता है, जो अत्यधिक श्रद्धा और उत्साह का प्रतीक है।

 

बिस्सू मेला – उत्तराखंड का पारंपरिक पर्व

उत्तराखंड के लोक पर्वों और मेलों में बिस्सू मेला का एक विशेष स्थान है। यह मेला जौनसारी जनजाति द्वारा मनाया जाता है और इसे उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक माना जाता है। यह मेला हर वर्ष मार्च और अप्रैल के महीने में एक सप्ताह तक चलता है।

बिस्सू मेले का आयोजन मुख्य रूप से चकराता क्षेत्र में किया जाता है, जहां आसपास के गांवों और जिलों जैसे टिहरी, सहारनपुर और उत्तरकाशी से बड़ी संख्या में लोग हिस्सा लेने आते हैं। इस मेले में संतुरा देवी की पूजा की जाती है, जिन्हें देवी दुर्गा का अवतार माना जाता है। लोग इस पर्व को अच्छी फसल और सुख-समृद्धि के लिए आभार स्वरूप मनाते हैं।

हर साल मार्च-अप्रैल आते ही चकराता की वादियों में गूंजता है –
🎵 "चलो रे मेला, संतुरा देवी का झमेला!" 🎵

बिस्सू मेला, यानी:

फसल का सेलिब्रेशन + लोक संगीत का मेला + तीरंदाजी का कॉम्पटीशन + नाच-गाना नॉनस्टॉप!


पारंपरिक रंग और लोक कला

इस मेले के दौरान लोग पारंपरिक पोशाकें पहनते हैं, लोक गीत गाते हैं और समूहों में नृत्य करते हैं। पूरे सप्ताह उत्सव का वातावरण बना रहता है और जगह-जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की परंपराएं और लोक विधाएं इस मेले में जीवंत हो उठती हैं।

🎶 म्यूज़िक Lovers के लिए Bonus 🎶

बिस्सू मेला = उत्तराखंड का अपना लोक म्यूज़िक फेस्टिवल 🎤
लोक गायक, ढोल दमाऊ, और झूमती भीड़...

बस समझ लीजिए – Spotify बंद करो, बिस्सू मेला लाइव सुनो! 🎧

सांस्कृतिक पहचान

बिस्सू मेला न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान और लोक जीवन की झलक भी है। यदि आप उत्तराखंड की लोक संस्कृति को नजदीक से देखना चाहते हैं, तो बिस्सू मेला अवश्य देखें।

अगर आप भी कभी उत्तराखंड आएं और सांस्कृतिक तड़का लगाना चाहते हैं –
तो बिस्सू मेला "must experience" है!

ध्यान रहे – मार्च या अप्रैल में टाइम निकालना ना भूलें! 📅😉 


घी संक्रांति – समृद्धि और परंपराओं का पर्व

घी संक्रांति, जिसे ओल्गिया के नाम से भी जाना जाता है, उत्तराखंड के पारंपरिक और लोकप्रिय क्षेत्रीय त्योहारों में से एक है। यह त्योहार हर वर्ष अगस्त के मध्य में मनाया जाता है और इसका सीधा संबंध कृषि, फसल और समृद्धि से होता है।




हरे-भरे खेतों और फलों से भरे वृक्षों का उत्सव

घी संक्रांति के समय उत्तराखंड के गांवों का दृश्य बेहद मनमोहक होता है। चारों ओर हरी-भरी फसलें, फलदार पेड़, और समृद्धि का माहौल दिखाई देता है। इस पर्व को अच्छी फसल, कड़ी मेहनत के फल और प्राकृतिक समृद्धि के प्रतीक रूप में मनाया जाता है।

इस दिन गांवों में घी और उड़द की दाल से बनी रोटियां विशेष रूप से खाई जाती हैं। घी का उपयोग त्योहार के हर पकवान में होता है, जो इसे और भी खास बनाता है।


उपहारों की पारंपरिक परंपरा

पुराने समय में यह परंपरा थी कि भतीजे अपने मामा को और दामाद अपने ससुराल वालों को उपहार देते थे। आज भी यह परंपरा जीवित है, लेकिन इसके रूप में बदलाव आया है। अब किसान और कारीगर अपने भूमि स्वामी या बड़े-बुजुर्गों को उपहार देते हैं।

इन उपहारों में शामिल होते हैं:

  • घी
  • कुल्हाड़ी
  • दातखोचा (धातु का दांत साफ़ करने वाला उपकरण)
  • जलाऊ लकड़ी

यह सब स्नेह और कृतज्ञता के प्रतीक के रूप में दिया जाता है।


 

त्योहार का सामाजिक महत्व

घी संक्रांति केवल एक मौसमी त्योहार नहीं, बल्कि यह सामाजिक संबंधों को मजबूत करने, परंपराओं को जीवित रखने, और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम भी है। गांवों में इस दिन लोग पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, एक-दूसरे को बधाई देते हैं और घरों में विशेष भोजन पकाया जाता है। 


हिलजात्रा – खेत, परंपरा और लोकनाट्य का पर्व

हिलजात्रा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का एक अनोखा और ऐतिहासिक पर्व है, जिसे खासतौर पर कुमाऊं क्षेत्र के किसान और पशुपालक समुदाय मनाते हैं। यह त्योहार खेती की सफलता, वर्षा ऋतु के आगमन और सामाजिक एकता का प्रतीक है।


कहाँ और कैसे हुई शुरुआत?

हिलजात्रा की जड़ें पश्चिम नेपाल के सोरार क्षेत्र से जुड़ी हैं, जहाँ से यह पर्व उत्तराखंड की सोर घाटी और फिर कुमौर गांव तक पहुंचा। धीरे-धीरे यह बजेठी, कनालीछिना, अस्कोट और अन्य गांवों में भी फैल गया। इन क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों और रूपों से जैसे – 'हिरन-चीतल पर्व' के रूप में भी जाना जाता है।


त्योहार की खास परंपराएँ

इस अनूठे उत्सव में तीन प्रमुख चरण होते हैं:

  1. बलिदान और पूजा - त्योहार की शुरुआत एक सफेद कपड़े से सजे हिरण की प्रतीकात्मक पूजा से होती है। क्षेत्रीय देवताओं की कृपा के लिए बकरे की बलि दी जाती है।
  2. लोकनाट्य और प्रदर्शन - दूसरे चरण में पूरे गांव के लोग लोकनाट्य, पारंपरिक वेशभूषा, और नाटकीय प्रस्तुतियों में भाग लेते हैं। इनमें कई बार समाजिक संदेश भी छुपे होते हैं।
  3. नृत्य और गीत - तीसरे चरण में पारंपरिक गीत-संगीत, ढोल-दमाऊ, और लोकनृत्य का आयोजन होता है, जहाँ गांववासी उत्साह और उल्लास से झूमते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यह त्योहार चंपावत के शासकों की विजय के प्रतीक के रूप में भी मनाया जाता है। एक लोककथा के अनुसार, चंद वंश के राजा कुरु एक बार इस उत्सव में भाग लेने सोरार गए थे। वहाँ उन्होंने एक भैंस को बलिदान कर, लोगों को प्रसन्न किया और उन्हें उपहार स्वरूप:

  • चार मुखौटे (हलवाहा, दो बैल, लखियाभूत)
  • नेपाली हल (कृषि उपकरण) दिलवाया, जो बाद में हिलजात्रा की प्रतीक परंपरा बन गए।

त्योहार का महत्व

हिलजात्रा केवल एक धार्मिक या सांस्कृतिक त्योहार नहीं है, यह धान की रोपाई, वर्षा की कामना, और कृषि जीवन की समृद्धि का जश्न है। इसके साथ ही यह सामुदायिक सहयोग, लोककला, और लोकनाट्य को भी जीवित रखने का प्रयास करता है।


क्यों जाएँ हिलजात्रा?

अगर आप उत्तराखंड की ग्राम्य संस्कृति, पारंपरिक नाट्य कला, और स्थानीय लोक संगीत को नज़दीक से देखना चाहते हैं, तो हिलजात्रा एक बेहतरीन मौका है। यह पर्व आपको न सिर्फ एक उत्सव, बल्कि एक जीवंत परंपरा का अनुभव कराता है। 


नंदा देवी राज जात यात्रा – हिमालय का महाकुंभ

उत्तराखंड की पवित्र धरती पर जब नंदा देवी राज जात यात्रा निकलती है, तो पूरा वातावरण भक्ति, आस्था और संस्कृति के रंग में डूब जाता है। यह कोई साधारण यात्रा नहीं, बल्कि हिमालय का महाकुंभ है – जो 12 साल में एक बार आयोजित होती है और हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक मानी जाती है।


'जात' का अर्थ और इसका महत्व

जात’ का अर्थ होता है – यात्रा या तीर्थयात्रा। इस राज जात यात्रा में उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र के लोग बड़ी श्रद्धा से शामिल होते हैं। यह यात्रा सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि उत्तराखंडी संस्कृति, लोक मान्यताओं और हिमालयी आस्था का जीवंत स्वरूप है।


कहाँ से शुरू होती है यात्रा?

यात्रा की शुरुआत कर्णप्रयाग के पास स्थित नौटी गांव से होती है। यहां से श्रद्धालु चार सींगों वाली भेड़ के साथ लगभग 280 किलोमीटर लंबी पदयात्रा पर निकलते हैं, जो लगभग 19 से 20 दिन चलती है।

यात्रा का मार्ग जंगलों, ऊँचे पर्वतों, बर्फीले रास्तों और नदियों से होकर गुजरता है, जो इसे दुनिया की सबसे कठिन तीर्थ यात्राओं में से एक बनाता है।


मुख्य पड़ाव और स्थल

इस राज जात यात्रा का सबसे पवित्र पड़ाव होता है रूपकुंड और होमकुंड, जहां पहुंचकर हवन और यज्ञ के बाद यात्रा पूर्ण मानी जाती है। यात्रा के अंत में चार सींगों वाली भेड़, जो देवी नंदा का प्रतीक मानी जाती है, उसे सजे हुए वस्त्र और आभूषणों से मुक्त कर दिया जाता है और उसे हिमालय की ओर भेज दिया जाता है – माना जाता है कि देवी स्वयं इस रूप में अपने मायके से ससुराल लौटती हैं।


क्या बनाता है इसे विशेष?

  • यह 12 वर्षों में एक बार होने वाला उत्सव है।
  • इसमें पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और चमोली जिलों के गांवों की भागीदारी होती है।
  • इसे "हिमालय का महाकुंभ" कहा जाता है।
  • यात्रा में सैकड़ों किलोमीटर की कठिन पदयात्रा, ऊँचाई, संस्कृति, और लोक जीवन की झलक मिलती है।


यह सिर्फ एक तीर्थ नहीं…

नंदा देवी राज जात यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह उत्तराखंड के लोगों की भावनाओं, लोक परंपराओं और प्रकृति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। अगर आप कभी इस यात्रा का हिस्सा बनें, तो ये अनुभव जीवन भर आपके दिल में बसा रहेगा।


🕉️ माघ मेला – उत्तरकाशी की पवित्र परंपरा

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित उत्तरकाशी सिर्फ देवताओं की भूमि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विविधताओं का एक अद्भुत संगम भी है। ऐसी ही एक परंपरा है — माघ मेला, जो धार्मिक आस्था, संस्कृति, लोक परंपराओं और मेले की रौनक का एक अनूठा मेल है।


📅 कब होता है यह मेला?

माघ मेला हर साल 14 जनवरी (मकर संक्रांति) से शुरू होकर 21 जनवरी तक चलता है। यह माघ महीने में पड़ता है, इसी वजह से इसे माघ मेला कहा जाता है।


🚩 कैसे होता है शुभारंभ?

मेले के पहले दिन, उत्तरकाशी जिले के अलग-अलग गांवों से कंदर देवता और अन्य क्षेत्रीय देवी-देवताओं की डोलियां या पालकियां सजाई जाती हैं और पाटा-संगराली गांव से होकर रामलीला मैदान, उत्तरकाशी में लाई जाती हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप और भक्तों की जयकारों से पूरा माहौल आध्यात्मिक हो जाता है।


🛕 स्नान और श्रद्धा

इस मेले की एक खास परंपरा है — भागीरथी नदी में पवित्र स्नान। माघ मेला में भाग लेने वाले भक्त बड़ी श्रद्धा से गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं क्योंकि यह स्नान उन्हें पापों से मुक्त करता है और आत्मिक शुद्धि प्रदान करता है।


🛍️ संस्कृति और व्यापार का संगम

  • इस मेले में स्थानीय किसान, कारीगर, और हस्तशिल्प निर्माता अपनी चीजें जैसे ऊनी कपड़े, हस्तकला, जैविक उत्पाद आदि बेचते हैं।
  • लोक कलाकार अपने नृत्य, गायन और वाद्य यंत्रों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते हैं।
  • यह मेला स्थानीय लोगों के लिए संवाद, व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का अवसर भी होता है।


🌄 क्यों है यह मेला खास?

  • पारंपरिक आस्था और आधुनिक पर्यटन का संगम
  • उत्तराखंड की लोक संस्कृति, पोशाक, वाद्य यंत्र और कारीगरी की झलक
  • अब यह सिर्फ उत्तरकाशी तक सीमित नहीं, बल्कि राज्य के अन्य हिस्सों में भी आयोजित होता है


🙏 एक अनमोल अनुभव

माघ मेला न सिर्फ एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह उत्तराखंड की जीवंत परंपराओं, लोक जीवन और आत्मिक आस्था का उत्सव है। अगर आप उत्तराखंड की असली संस्कृति को महसूस करना चाहते हैं, तो माघ मेला आपके लिए एक सुनहरा अवसर है। 


🌟 इगास – उत्तराखंड की बूढ़ी दिवाली का त्योहार

उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत जितनी समृद्ध है, उतनी ही अनोखी भी। यहाँ एक ऐसा त्योहार मनाया जाता है जो न केवल दिवाली की याद दिलाता है, बल्कि अपनी एक अलग कहानी भी कहता है — इगास, जिसे बूढ़ी दिवाली के नाम से भी जाना जाता है।


📜 त्योहार के पीछे की पौराणिक कथा

मान्यता है कि जब भगवान राम 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर अयोध्या लौटे, तो उनकी वापसी की सूचना पूरे देश में तेजी से फैल गई। परंतु, उस समय उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र मैदानों से सीधे जुड़े नहीं थे। इसलिए भगवान राम की वापसी की खबर यहां 11 दिन बाद पहुंची

इसीलिए, यहां दीपावली के 11वें दिन यानी ‘एकादशी’ को इगास के रूप में दीपों का यह पर्व मनाया जाता है।


🪔 कैसे मनाई जाती है इगास?

  • इस दिन दाल के पकोड़े, पूरी, खीर और अन्य पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में लोग चीड, बुरांश या अन्य स्थानीय लकड़ियों के गुच्छे (जिसे ‘भैलो’ कहते हैं) बनाकर उसे अलाव की तरह जलाते हैं
  • अलाव के चारों ओर बैठकर भोजन किया जाता है, लोक गीत गाए जाते हैं, और पारंपरिक भैलो नृत्य किया जाता है।
  • बच्चे और युवा हाथों में जलते हुए मशाल लेकर गांव में घूमते हैं।



🧡 क्यों है इगास खास?

  • यह पर्व सिर्फ राम की वापसी की खबर की देरी नहीं, बल्कि सामूहिक स्मृति, परंपरा और स्थानीय संस्कृति का उत्सव है।
  • यह त्योहार साझा भोजन, लोक नृत्य, परंपराओं और मेलजोल का प्रतीक बन गया है।
  • ‘भैलो’ गीत, जिसमें गांव की समृद्धि, पशुधन और फसल की बातें होती हैं, अब लोक संस्कृति का हिस्सा हैं।


🌄 एक परंपरा, जो दिलों में बसी है

इगास केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंडवासियों के दिलों में बसी अपनी सांस्कृतिक पहचान है। यह पर्व पुरखों की स्मृति, लोक परंपरा और समूह की आत्मा को जीवंत बनाए रखता है।


🔸 क्या आप जानते हैं?

उत्तराखंड सरकार अब इगास को राज्य स्तर पर उत्सव के रूप में बढ़ावा दे रही है, जिससे यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक बनी रहे। 


उत्तरायणी मेला – उत्तराखंड की आस्था, संस्कृति और व्यापार का संगम

उत्तरायणी मेला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का एक प्रमुख पारंपरिक और धार्मिक उत्सव है, जिसे हर साल जनवरी के दूसरे सप्ताह में मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।


📍 कहां लगता है?

यह मेला उत्तराखंड के कई हिस्सों में आयोजित होता है, जैसे:

  • बागेश्वर (सबसे प्रसिद्ध और ऐतिहासिक स्थल)
  • रानीबाग
  • हंसेश्वरी

इनमें से बागेश्वर में स्थित बागनाथ मंदिर परिसर, सरयू नदी के तट पर स्थित, मेले का प्रमुख केंद्र होता ह


🌞 धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

  • मकर संक्रांति वह समय होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है, और यह संक्रमण काल शुभ माना जाता है।
  • श्रद्धालु सरयू नदी में डुबकी लगाते हैं, जिसे आत्मा और शरीर की शुद्धि के लिए पवित्र माना गया है।
  • बागनाथ मंदिर में भगवान शिव की पूजा कर लोग अपने कष्टों से मुक्ति की कामना करते हैं।

🎶 लोक कला और उत्सव

  • मेला लोकगीतों और नृत्यों से सराबोर रहता है। विशेष रूप से:

  • झोरा
  • चांचरी
  • बैरा जैसे पारंपरिक नृत्य-गीतों का सुंदर प्रदर्शन होता है।
लोग पारंपरिक वेशभूषा में सजते हैं और त्योहार की खुशियों में झूम उठते हैं।


🛍️ व्यापार और स्थानीय हस्तशिल्प

यह मेला व्यापारिक गतिविधियों के लिए भी प्रसिद्ध है।

यहां आप खरीद सकते हैं:


  • लोहे और तांबे के बर्तन
  • बांस की बनी वस्तुएं
  • जड़ी-बूटियाँ और मसाले
  • टोकरी, पीपे, चटाई, गद्दे, कालीन, कंबल आदि

यह मेला स्थानीय शिल्पकारों और व्यापारियों को अपना हुनर दिखाने और सामान बेचने का भी मंच देता है।

 

🌄 क्यों जाएं उत्तरायणी मेले में?

उत्तरायणी मेला सिर्फ एक मेला नहीं है, यह उत्तराखंड की आत्मा, उसकी परंपराएं, उसकी सांस्कृतिक पहचान और आस्था का जीवंत स्वरूप है। यदि आप कभी जनवरी में उत्तराखंड की यात्रा करें, तो इस मेले का हिस्सा जरूर बनें। 


देवीधुरा बगवाल मेला – पत्थरों की यह अनोखी परंपरा है आस्था का प्रतीक

उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित देवीधुरा, अपने प्राचीन मंदिरों और खासकर बगवाल मेले के लिए प्रसिद्ध है। यह मेला हर साल रक्षाबंधन के दिन बराही देवी मंदिर में आयोजित होता है और इसकी सबसे बड़ी खासियत है – पत्थर युद्ध, जिसे ‘बगवाल’ कहा जाता है।


📍 कहां लगता है?

देवीधुरा, लोहाघाट से लगभग 45 किमी दूर स्थित एक पौराणिक स्थल है। यहां बराही देवी मंदिर स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र है।


🔱 क्या है बगवाल परंपरा?

बगवाल कोई आम मेला नहीं है। यह एक अनूठा पत्थर युद्ध है जिसमें चार पारंपरिक खाम (गुट) भाग लेते हैं:

  • चम्याल
  • वालिग
  • लमगडि़या
  • गहरवाल

इन गुटों के लोग मैदान में आमने-सामने आते हैं और एक-दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं, जबकि वे लकड़ी की बड़ी ढालों (ढाल) से अपनी रक्षा करते हैं।


🤕 चोट को माना जाता है शुभ

  • इसमें भाग लेने वाले घायल होने से नहीं डरते, बल्कि चोट को आशीर्वाद और देवी की कृपा माना जाता है।
  • यह परंपरा प्राचीन नरबलि प्रथा की जगह लाई गई थी। कहा जाता है कि पहले एक मानव बलिदान दिया जाता था, लेकिन बाद में इसे प्रतीकात्मक रूप से पत्थर युद्ध से बदल दिया गया।

🙏 देवी बराही की कृपा

इस मेले का आयोजन बराही देवी के सम्मान में होता है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि देवी स्वयं इस युद्ध की साक्षी होती हैं और उनकी कृपा से आज तक इस मेले में कभी कोई मृत्यु नहीं हुई


🎉 मेले की खासियत

  • यहां लोक गीत, पारंपरिक नृत्य और स्थानीय व्यंजन का भरपूर आनंद लिया जा सकता है।
  • नेपाल और कुमाऊं क्षेत्र से हजारों लोग इस अद्भुत परंपरा को देखने आते हैं।


🔔 क्यों जाएं देवीधुरा बगवाल मेला?

यह मेला सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि संस्कृति, साहस, और श्रद्धा का अनूठा संगम है। देवीधुरा का बगवाल मेला आपको एक ऐसी परंपरा से रूबरू कराता है जिसे आपने कभी पहले नहीं देखा होगा। 

 

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